कोरे नारों से कुछ नहीं होता
यदि हम एक दूसरे की ओर देखते रहेंगे, तो पाखण्ड का बोलबाला रहेगा। भले ही हम कोठरी में बैठकर महर्षि दयानन्द की जय बोलते रहें। उत्सवों में नारों की भरमार होती है। परन्तु क्या रचनात्मक कदम भी कोई उठाता है! जनता बराबर ठगी जा रही है और आर्यजन केवल नारों से ही अपने आपको कृतकृत्य मान लेते हैं। वर्ष भर में हम यदि एक परिवार को भी आर्य बना लेते हैं तो यह उद्घोष एवं जयघोष से कहीं बढकर हैं। सुधार व्यक्ति का करना है और व्यक्ति का परिवर्तन सदव्यवहार के बिना असंभव है। नारे उतेजक तो होते हैं, पर वे सुधारक भी हों, यह आवश्यक नहीं है।
If we keep looking at each other, hypocrisy will prevail. Even if we sit in our rooms and keep chanting Maharishi Dayanand's praises. There is a lot of sloganeering in festivals. But does anyone take any constructive step? The public is constantly being cheated and the Arya people consider themselves accomplished with only slogans. If we can make even one family Arya in a year, then it is much better than proclamation and jay-chasing. Reformation has to be done of the individual and transformation of the individual is impossible without good behavior. Slogans are exciting, but it is not necessary that they are reformers too.
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