आत्मवेत्ताओं ऋषियों ने मानव काया की तीन परतों अर्थात स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में एक अद्भुत चेतन तत्व को खोज निकाला। पंचकोशों एवं षट्चक्रों में विद्यामन शक्तिबीज कोशों में विद्यमान दिव्य क्षमताओं की प्रचुर प्रचंडता उन्हें इसी शरीर में दिखाई दी। विराट में सन्निहित सब कुछ उन्होंने इसी छोटे से कलेवर में सारभूत विद्यमान पाया है। इसिलए उन्होंने अपने अंतरंग में ही देव साधना का विधान अधिक महत्वपूर्ण माना है। यों तो देव मंदिरों में एवं लोक-लोकांतरों में भी देव शक्तियाँ संव्याप्त हैं, परंतु जितनी समीप और जितनी सजीव वे अपने अंतरंग में सन्निहित हैं, उतनी अन्यत्र कहीं भी नहीं। संसार में हमारे जितने समीप परमात्मा हैं, उतना अधिक और कोई नहीं है।
Spiritual sages discovered a wonderful conscious element in the three layers of the human body i.e. gross, subtle and causal bodies. In this body, he saw in this body the immense intensity of the divine potentialities present in the Vidyaman Shaktibeej cells in the Panchkoshas and the Shatachakras. Everything embodied in the Virat, he has found the essence existing in this small envelope. That is why he has considered the law of Dev Sadhana to be more important in his own inner self. In this way, the divine powers are contained in the temples of God and also in the different worlds, but nowhere as close and as alive as they are embodied in their inner being, nowhere else. No one else is more close to us in the world than God is.
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नकारात्मक चिन्तन को छोड़ें महर्षि दयानन्द के उद्गारों को यदि हम रचनात्मक रूप नहीं देते तो हम ऋषि ऋण से उऋण नहीं होंगे। यदि कुरीतियों का समर्थन करते रहे तो ऋषि के ग्रंथों को पढकर भी हम समाज की कायापलट नहीं कर पायेंगे। जिस बस्ती में हम रहते हैं, यदि उसमें हम आँखें बन्द कर लें तो आर्यत्व कितने प्रतिशत रह जायेगा? आर्यजन स्वयं ही इस बात पर...